Sunday, January 3, 2016

पत्रकारिता को कलंकित करते चन्द पत्रकार

ब्रेक न्यूज़ ब्यूरो

पत्रकारिता को कलंकित कर रहे चन्द पैसों के खातिर कलम बेचने बाले पत्रकार
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साल 2015 पत्रकारों पर हर बक्त मौत बनकर मडराता रहा ऐ देश का हर पत्रकार जानता है पत्रकार जब अपनी कलम से कीसी को बेनकाब करने की कोशिश करता तब मौत अपना जाल उस पर बिछाने लगती हैं  तब कहीं उसका परिवार उसका साथ देना बंन्द कर देता या संस्थान अपने हा
थ शीकोड़ने लगता है आज कहीं न कही दलाल पत्रकारों के कारण ऐ सब हो रहा है  कहर कोई अखबार में काम तो करना चाहता है लेकिन उसके पीछे उस व्यक्ति के कई कारण होते हैं। यानी आज पत्रकारिता बुरे दौर से गुजरने पर मजबूर हैं। अरे अब तो वह दौर आ चुका है कि पैसे के लिए वे अपने ही किसी साथी की बलि बहुत ही संयत भाव से चढा सकते हैं। माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, यह एक प्रोफेशन और बिजनेस हो चला है। मगर क्या हर प्रोफेशन और बिजनेस का कोई एथिक्स नही होता? चंद टुकड़ों पर अपना जमीर बेचना ही अब कुछ के लिए पत्रकारिता बन गयी है। ताज्जुब तो इस बात का है कि इस घिनौने करतूतों में मालिकान सिर्फ इसलिए साथ देते है कि वह उनके स्वार्थो का बखूबी ख्याल रखता है
बात उन दिनों की है जब समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियां चरम पर थी। ब्रतानियां हुकूमत की लाठियां हिन्दुस्तानियों पर कहर बनकर टूट रही थी। बहु-बेटियों की अस्मत खुलेआम चैराहों पर नीलाम हो रहे थे। भारतीयों के सामाजिक सरोकारों व धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात किया जा रहा था। मजदूर को मजदूरी के बदले यातनाएं दी जा रही थी। जुर्म का बगावत करने वाले समाज के हर तबके का हंटर के बल पर हक छिना जा रहा था। उस दौर में पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने उदन्त मार्तण्ड नामक मैग्जिन निकालकर न सिर्फ लोगों के दुखों को साझा किया, बल्कि उनकी आवाज को मैगजिन के जरिए तानाशाहों की नींद हराम कर दी। समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार किया। अपने पत्रों के जरिए जनता में हक व इंसाफ के प्रति जागरूकता पैदा की। लेकिन किसे पता था 190 साल पूर्व जुगल व राजा राममोहन राय की जोड़ी ने पत्रकारिता की नींव रखी वह आज इस मुकाम पर होंगी कि उसे चैथे स्तंभ का दर्जा मिल जायेगा। मतलब साफ है समाज में पत्रकार का सम्मान खत्म होता जा रहा है। कुछ लोग धंधा करने के लिए पत्रकार का चोला ओढ़ लेते हैं तो कई पत्रकार धीरे-धीरे यह धंधा अपना लेते हैं। इसे बढ़ावा देने में संस्थानों का भी कम हाथ नहीं। लोकतंत्र का चैथा खंभा बुरी तरह हिल रहा है। जनता को वही खबरें मिल रही हैं जिससे चैनल या अखबारों को फायदा हो। अपने फायदे और पैसे के लिए वे किसी भी विज्ञापन को खबर बनाकर पेश कर रहे हैं। सबसे शर्म की बात यह है कि वे पैसे की लालच में वे राय भी दे रहे हैं। इस पेशे में ये सोच कर आया था कि इमानदारी का इकलौता पेशा यही बचा है जिसके माध्यम से देश और समाज की सेवा कर सकता हूं लेकिन करीब आने पर पता चला कि यहां भी सफाई की जरूरत है। स्वतंत्रता जैसे शब्द के मायने भी इस पेशे से खत्म हो गए हैं। बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने के लिए तैयार बठी है,जब चैनल आखबार कोउपरी  फायद नहीं करा पाते तब उन्हें निकाल दिया जाता है और नये युवाओं और युवतियों को लिया जाता है जो ऊपरी फायदा करा सकें शायद इसी कारण पत्रकारिता सिर्फ शब्द बनकर रह गया है।


रिपोर्ट अमन तिवारी रीवा मध्य प्रदेश

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