ब्रेक न्यूज़ ब्यूरो
लखनऊ. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन की औपचारिक घोषणा भले ही बाद में हो मगर सपा और कांग्रेस के बड़े नेताओं ने गुरुवार को साफ़ कर दिया है कि यूपी के विधानसभा चुनावो के लिए दोनों पार्टियाँ एक साथ लड़ेंगी और राष्ट्रीय लोकदल अब इस गठबंधन का हिस्सा नहीं होगा. समाजवादी पार्टी के उपाध्यक्ष किरणमय नंदा ने यह साफ़ कर दिया कि पहले भी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन की ही बात थी और कांग्रेस अगर चाहे तो अपने हिस्से की सीटों में जिसे भी जितना चाहे दे दे.
सपा और कांग्रेस के गठबंधन के बाद अब यह लगभग साफ़ है कि सपा करीब 285 सीटो पर लड़ेगी और बाकी सीटों पर कांग्रेस और उसके साथ आने वाली अन्य छोटी पार्टियाँ लड़ेंगी.उम्मीद है कि पीस पार्टी, महानता दल और राष्ट्रीय निषाद पार्टी के साथ जनता दल युनाईटेड भी इस गठबंधन का हिस्सा बनेगी. सुहैलदेव भारतीय समाज पार्टी के भी इस गठबंधन में शामिल होने की चर्चा है.
गठबंधन का स्वरुप लगभग तय है और यह वैसी ही हुआ है जैसा कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर चाहते थे. राहुल गाँधी और अखिलेश यादव के एक साथ आने से निश्चित रूप से भारतीय राजनीति में एक ऐसा नया युवा गठजोड़ उभरेगा जिसकी परख भले ही 2017 में हो मगर यदि यह सफल हुआ तो 2019 की भारतीय राजनीति पर बड़ा असर डालेगा.
इस गठबंधन की तैयारी तो बीते 2 महीनो से ही चल रही थी और उसके संकेत भी मिले जब अखिलेश यादव ने प्रशांत किशोर से मुलाकात का खुलासा किया और उन्हें एक अच्छा रणनीतिकार बनाते हुए प्रशांत किशोर की तारीफ की थी. बीते तीन दिनों में राष्ट्रीय लोकदल के हठवादी रवैये से गठबंधन के कुछ अनिश्चितता का माहौल जरूर बन गया था, मगर गुरुवार की सुबह कांग्रेस नेतृत्व ने अजीत सिंह को शाम चार बजे तक अपना फैसला बताने की मोहलत दी थी. अजीत सिंह को 25 सीते देने के लिए कांग्रेस तैयार थी मगर अजीत 35 सीटो की अपनी मांग पर अड़े थे. साथ ही अजीत सिंह का कहना था कि उनके गढ़ बागपत और मथुरा की सारी सीटे भी उनके खाते में आनी चाहिए. जाहिर बात थी कि न तो सपा और न ही कांग्रेस इस मांग को स्वीकार करती.नतीजतन 4 बजते बजते राष्ट्रीय लोक दल के बिना गठबंधन की घोषणा सपा के उपाध्यक्ष किरणमय नंदा ने कर दी.
अजीत सिंह की ताकत पश्चिमी यूपी का जाट वोट बैंक है, बीते लोकसभा चुनावो में यह वोट बैंक सांप्रदायिक आधार पर विभाजित हुआ था और अजीत सिंह लोकसभा में अपना खाता भी नहीं खोल सके थे. ध्रुवीकरण इतना जबरदस्त था कि अजीत सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी अपनी अपनी सीटे भी हार गए थे. मगर बीते 2 सालों में जाटो के बीच भाजपा को ले कर नाराजगी भी बढ़ी है. इसका बड़ा कारण हरियाणा में जाट आदोलन को कुचलने के लिए हरियाणा की भाजपा सरकार का बर्बर रवैया रहा. गठबंधन के रणनीतिकारो का मानना था कि यदि अजीत सिंह साथ आते हैं तो निश्चित रूप से वोट प्रातिशत बढेगा मगर यदि वह नहीं भी आते हैं तो वे लोकसभा चुनावो में बढे हुए भाजपा का ही वोट काटेंगे.
गठबंधन की ओर से अब पश्चिम यूपी में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ही लड़ेंगी क्यूंकि बाकी संभावित साझीदारो का इस इलाके में कोई प्रभाव नहीं है. साथ ही पूर्वांचल में कमजोर दिख रही कांग्रेस को मजबूती मिलेगी तो वही अवध में कमजोर मानी जाने वाली समाजवादी पार्टी को इस इलाके में मजबूत रही कांग्रेस का सहारा भी मिलेगा. पीस पार्टी के साथ आने से पूर्वांचल के मुस्लिम मतों का विभाजन भी काफी हद तक रूकेगा और पूरे प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं का भरोसा भी बसपा की जगह इसी गठबंधन पर ज्यादा होगा.
हालाकि पश्चिमी यूपी के अब त्रिकोणीय हो चुके मुकाबले में मायावती ने बड़ी संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं . मायावती की रणनीति में इस इलाके में मौजूद बड़ी संख्या में जाटव वोटरों के साथ मुस्लिम मतों का जोड़ बनाना है. यह देखना बहुत ही दिलचस्प होगा कि कांग्रेस और सपा गठबंधन बनाम मायावती की लडाई में मुस्लिम वोटर का रुझान किस तरह होता है. वहीँ भाजपा की रणनीति फिर से मोदी मैजिक के साथ वोटो के ध्रुवीकरण पर ही आधारित है. मुजफ्फरनगर दंगो के बाद हुयी राजनीति में मुख्य किरदार के रूप में उभरे संगीत सोम फिर से इस ध्रिविकरण को हवा देने में लगे हुए हैं. भाजपा इस बार के चुनावो में भी कैरान के पलायन और अख़लाक़ बीफ काण्ड को मुद्दा बनाने की तैयारी में है. भाजपा के ये दोनों कार्ड कितने प्रभावी होंगे यह भी देखना दिलचस्प होगा.
बहरहाल, अगर अखिलेश और राहुल का यह गठबंधन यूपी में कामयाब रहा तो निश्चित रूप से यह आगे भी असर करेगा और 2019 के चुनावो में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के लिए एक ऐसे ध्रुव का आधार बनेगा जिसमे तेजस्वी यादव के साथ राष्ट्रीय जनता दल और ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस जैसी युवा शक्तिया भी शामिल होंगी.