ब्रेक न्यूज़ ब्यूरो
लखनऊ में इन दिनों दिन के तापमान में तेजी से बदलाव आ रहा है। ठीक इसी तरह प्रदेश में सियासी गर्मी भी बढ़ने ही वाली है। आखिरी बजट पास कराने के बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सामने अब अपना काम दिखाने का आखिरी साल बचा है। उनके सामने एक बार फिर दोहरी चुनौती है। खुद को खरा साबित करना है।
उन्हें दिखाना होगा कि उनमें और उनकी पार्टी में अपने कार्यकाल की उपलब्धियों के बूते अगले चुनाव की रेस में आखिर तक बने रहने का दमखम है। वैसे मुख्यमंत्री अखिलेश खुद को मजबूत बता रहे हैं।
दावा भी कर रहे हैं कि वे एक बार फिर सत्ता में वापसी करेंगे, पर उनकी कामयाबी इस बात पर निर्भर होगी कि वे अपनी सरकार के काम के सकारात्मक पहलुओं को कितनी मजबूती से जनता के बीच रख पाते हैं?
सत्ता में रहने के कारण सरकार से हुई तमाम तरह की चूक और विवादों का साया उनकी उपलब्धियों पर भारी पड़ सकता है। वैसे भी यूपी में सत्ता का यह दंगल वन टू वन नहीं रहने वाला है। सो मुकाबला तो सभी दलों के लिए बेहद कड़ा होगा। मैदान में सियासी तप से निकले कई महारथी होंगे।
सत्ता में रहने के कारण सरकार से हुई तमाम तरह की चूक और विवादों का साया उनकी उपलब्धियों पर भारी पड़ सकता है। वैसे भी यूपी में सत्ता का यह दंगल वन टू वन नहीं रहने वाला है। सो मुकाबला तो सभी दलों के लिए बेहद कड़ा होगा। मैदान में सियासी तप से निकले कई महारथी होंगे।
मजेदार बात ये है कि यूपी का चुनावी दंगल कुछ अलग ही स्तर पर अलग स्टाइल में लड़ा जाने वाला है। यहां न तो पड़ोसी राज्य बिहार की तर्ज पर दोतरफा फाइट है न ही यूपी में दलों के लिए यह गुंजाइश है कि वे पश्चिम बंगाल, असम के नतीजों के आधार पर अपनी रणनीति तय कर सकें।
वैसे भी पांच राज्यों के चुनावी नतीजे मई में आएंगे। तब तक तो यूपी का सियासी तापमान और चढ़ जाएगा।
सूबे में चुनावी माहौल शुरू होने में एक साल से भी कम वक्त है। 2012 के चुनाव में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अलग-थलग पड़ गई बसपा अपनी हार का बदला चुकाने को मचल रही है, लेकिन यह सब कुछ इस बात पर निर्भर है कि उसकी जमीनी ताकत कितनी बची है? उसकी चुनावी तैयारियां कैसी हैं?
सूबे में चुनावी माहौल शुरू होने में एक साल से भी कम वक्त है। 2012 के चुनाव में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अलग-थलग पड़ गई बसपा अपनी हार का बदला चुकाने को मचल रही है, लेकिन यह सब कुछ इस बात पर निर्भर है कि उसकी जमीनी ताकत कितनी बची है? उसकी चुनावी तैयारियां कैसी हैं?
इस पर राजनीति के विद्वानों की राय जुदा हो सकती है, लेकिन शहर से निकलते ही किसी आम आदमी (केजरीवाल के साथी नहीं) से बात करेंगे तो मायावती की वापसी की बात करने वाले एक-दो नहीं, कई मिल जाएंगे।
मुमकिन है वे बसपा के वोटर न हों और एक पब्लिक परसेप्शन से प्रभावित होकर अपनी बात रखते हों, पर यह सच है कि बसपा सत्ता के इस मुकाबले में फिलहाल बीजेपी से आगे दिख रही है। कारण कई हैं। एक तो यही कि उसके पास अखिलेश के खिलाफ एक जुझारू चेहरा है, मायावती का।
बसपा का अपना वोट बैंक भी उसकी दूसरी बड़ी ताकत है। पार्टी के सत्ता से बाहर रहने या मायावती के दिल्ली में डेरा डाल देने के नुकसान का गणित तो उसके साथ जुड़ा है ।
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