Tuesday, March 13, 2018
गठबंधन -उपचुनाव के नतीजे तय करेंगे भविष्य की सियासत
टीम ब्रेक न्यूज ब्यूरो
लखनऊ. उत्तर प्रदेश की गोरखपुर और फूलपुर सीट पर उपचुनाव को वर्ष 2019 लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है. यह भी माना जा रहा था कि इसके नतीजे ही प्रदेश की सियासत के मौजूदा रुख के लिहाज से भविष्य की राह तय करेंगे. कम मतदान प्रतिशत की वजह से अब यह दावे के साथ कह पाना मुश्किल है. लेकिन, सपा और बीएसपी के तालमेल से सूबे की सियासत में बने नए समीकरण ने यह जरूर तय कर दिया है कि इन उपचुनाव के नतीजे भविष्य की राजनीति का रास्ता तैयार करेंगे. उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक बहुमत के साथ बीजेपी के सत्ता पर काबिज होने के बाद सीएम योगी आदित्यनाथ और सरकार में डिप्टी सीएम केशव मौर्य के इस्तीफे से खाली हुई गोरखपुर और फूलपुर सीट पर उपचुनाव तय हो गए थे. लगातार बीजेपी के हाथों मात खा रहे विपक्ष ने भी बीजेपी को इन दो सीटों पर मात देने का हौसला बरकरार रखा. आखिर उपचुनावों का ऐलान हुआ और इन उपचुनावों में बीजेपी को हराने की रणनीति का ताना—बाना भी बुना गया. लेकिन, इस चुनाव के ऐलान से पहले गैरबीजेपी दलों की एकता की लगाई जा रही अटकलें, नामांकन के साथ ही मिट्टी में मिलती नजर आई. कांग्रेस ने गोरखपुर सीट पर सुरहिता और इलाहाबाद की फूलपुर सीट से मनीष मिश्रा को उतारकर विपक्षी एकता की उम्मीदों को पलीता लगा दिया. इसके बावजूद कांग्रेस के साथ गठबंधन कर विधानसभा चुनाव लड़ चुके अखिलेश यादव ने अपनी उम्मीदें नहीं छोड़ीं. पूर्वांचल में अपनी पैठ रखने वाली पीस पार्टी और निषाद पार्टी को अपने साथ करने में बड़ी कामयाबी हासिल की. निषाद पार्टी के मुखिया संजय निषाद के बेटे प्रवीण कुमार को समाजवादी पार्टी से चुनाव मैदान में उतारने का फॉर्मूला अपनाया. यानि निषाद पार्टी का नेता और झंडा समाजवादी पार्टी का. दोनों का मान का ख्याल इस फॉर्मूले में रखा. बीजेपी को इन उपचुनावों में गैरबीजेपी दलों को एकजुट करने की मुहिम शुरूआती दौर में जो बिखर चुकी थी, उसकी उम्मीदों की लड़ी को राज्यसभा सदस्यों के चुनाव ने फिर जोड़ना शुरू कर दिया. सपा के पास अपनी पार्टी के एक सदस्य को राज्यसभा में पहुंचाने के बाद भी विधायकों की संख्या बचने और बीएसपी के विधायकों के कम संख्याबल के बीच सियासी तालमेल का एक नया फॉर्मूला निकला. बीएसपी के उम्मीदवार को राज्यसभा भेजने में सपा की मदद के ऐवज में बीएसपी ने उपचुनाव में उसे समर्थन देने का ऐलान किया. वैसे भी इन उपचुनाव में बीएसपी अपनी परंपरा के तहत मैदान में नहीं थी. ऐसे में इसका कोई नफा या नुकसान उसके खाते में जुड़ने वाला नहीं था. इसे देखते हुए बीएसपी ने राज्यसभा में अपना एक सदस्य भेजने की रणनीति तैयार कर सपा को समर्थन करने का फैसला कर सभी को चौंका दिया. सूबे की सियासत में यह सबसे चौंकाने वाला तालमेल था. कभी एक साथ मिलकर सूबे की सत्ता पर काबिज होने वाली इन दोनों पार्टियों के बीच 1993 में ऐसी दुश्मनी ठनी कि दोनों का 'आम और इमली' वाले सम्बंध हो गए. लेकिन, सियासी मजबूरी ही सही, लेकिन प्रदेश की सियासत में समाजवादी पार्टी ने बीएसपी को अपने करीब लाकर भविष्य के लिए एक बड़ा संकेत दे दिया है. भविष्य की राजनीति इसलिए भी कि सपा हो या बीएसपी या फिर कांग्रेस, सभी को बीजेपी को 2019 में रोकने की फिक्र सता रही है. उन्हें डर है कि यदि वर्ष 2014 की तरह नतीजे बीजेपी के पक्ष में जाते हैं तो उनकी सूबाई सियासत करीब—करीब खत्म हो जाएगी. इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकसभा चुनाव के नतीजे प्रदेश विधानसभा के अगले चुनाव पर भी डालेंगे. क्योंकि मोदी सरकार की तमाम नीतियां वर्ष 2022 या 2024 को ध्यान में रखकर हैं. ऐसे में इस समयावधि तक वह अपनी कामयाबी का झंडा लहराने में कामयाब रहती है तो फिर उसे चुनौती देना बेहद मुश्किल होगा. साथ ही गैरबीजेपी दलों को अपने कार्यकर्ताओं का उत्साह बनाए और उन्हें बचाए रखना उससे बड़ी चुनौती. उत्तर प्रदेश में सपा और बीएसपी के तालमेल से यदि उपचुनाव में नतीजे उनके पक्ष में आते हैं तो निश्चित तौर पर ये भविष्य के एक मजबूत गठबंधन की नींव भी रखेंगे. ऐसी नींव, जिस पर विपक्षी एकता का मंच सजेगा. इस मंच पर कांग्रेस और अन्य छोटे दलों को भी आने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. वहीं सपा और बीएसपी के तालमेल से बीजेपी के खिलाफ कामयाबी मिली तो यह मोदी के उस विजय रथ को भी थमने की ओर इशारा होगा, जिसके पहियों की धमक सूबे की सियासत में लगातार गूंजती आ रही है. बहरहाल, उत्तर प्रदेश की दोनों संसदीय सीटों पर हुुए उपचुनाव की वोटिंग की गिनती शुरू हो चुकी है और सभी दलों को इसके नतीजों का बेसब्री से इंतजार है.
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