Monday, November 7, 2016

लखनऊ : ये चेहरे तय करेंगे, यूपी में बनेगी किसकी सरकार

  • ब्रेक न्यूज़ ब्यूरो 
  • 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए विकास से लेकर जाति-धर्म, कानून-व्यवस्था जैसे मुद्दे हावी
  • अखिलेश यादव, मायावती, शीला दीक्षित अपनी-अपनी पार्टियों के लिए हैं सबसे बड़ा चुनावी चेहरा, भाजपा को नरेंद्र मोदी का सहारा
लखनऊ। उत्तर प्रदेश में अगले साल यानि 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। कुछ महीनों बाद होने वाले ये चुनाव सिर्फ उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल करने की जंग नहीं है, बल्कि यूपी के जरिये 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए महासंग्राम भी है। यही वजह है कि 403 सीट वाली यूपी विधानसभा के लिए समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, भाजपा और कांग्रेस सभी ने जी-जान लगा दी है। जाहिर सी बात है कि यूपी की राजनीति में वोटरों के लिए प्रत्याशी के चेहरे यानि वो किसके नाम पर वोट देंगे, जैसी बातों का ख़ासा महत्व है, इसलिए चेहरे तय करने में भी पार्टियों को काफी मशक्कत करनी पड़ी है। समाजवादी पार्टी में हाल के दिनों में जो भी घटनाक्रम चला है, उसके बावजूद ये तो तय है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ही निर्विवाद रूप से चुनाव का चेहरा हैं। बसपा में मायावती हैं। कांग्रेस ने भी कई नामों पर मशक्कत करने के बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर दिया है। हालाँकि इस मामले में भारतीय जनता पार्टी पीछे है। उसने मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में किसी का भी नाम सार्वजानिक नहीं किया है। वैसे भाजपा में तो वोट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही मांगे जा रहे हैं। इस चुनाव में भी उनका ही नाम प्रयोग होगा।
विधानसभा चुनाव
पार्टी से ज्यादा प्रत्याशी को महत्व
बहरहाल चुनावी महासंग्राम की बिसातें बिछ चुकी हैं। नेता और पार्टियाँ आरोप-प्रत्यारोप, उपलब्धियां, खामियांगिनाने में जुट गई हैं। विरोधियों को घेरने के लिए चक्रव्यूह रचे जा रहे हैं। विकास कार्यों के साथ ही जाति-धर्म, रोजगार, महंगाई, कानून-व्यवस्था जैसे मुद्दे हवाओं में चारो तरफ नजर आने लगे हैं। उत्तर प्रदेश सभी राजनीतिक दलों के लिए चुनौती रहा है। इस चुनौती और उलझन का प्रमुख कारण है उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने ज्यादातर पार्टी प्रत्याशी के आधार पर राजनीतिक दलों को जनादेश दिया है। जैसे 2012 विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव की साइकिल यात्रा और मुलायम सिंह यादव की संगठन पर पकड़ के जरिये किये गए प्रयासों से सपा को जबरदस्त कामयाबी मिली। समाजवादी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलालेकिन उसके दो साल बाद हुए लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांगे और भाजपा को यूपी में 90प्रतिशत सीटों पर भारी जीत मिली।मगर उसके बाद के उपचुनावों और स्थानीय चुनावों में सपा की पुनः वापसी हुई। यह आंकड़ा इस बात को बल देता है कि उत्तर प्रदेश में कोई भी पार्टी स्थाई नहीं है। 2017 का विधानसभा चुनाव सपा और बसपा के लिए सत्ता की लड़ाई है, परन्तु कांग्रेस और भाजपा के लिए यह प्रदेश के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण है।
विधानसभा चुनाव
सभी पार्टियों के लिए चुनौती
बीते दिनों मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने तो अपनी सरकार के चार साल पूरे होने पर साइकिल यात्रा शुरू कर विकास योजनाओं को जन-जन तक पहुंचाने की शुरूआत क्या की, बसपा, भाजपा और कांग्रेस में भी हलचल मच गई। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री मोदी जब अपनी केंद्र सरकार के दो साल पूरे होने पर बलिया में गरीब महिलाओं को मुफ्त रसोई गैस कनेक्शन देने की ‘उज्ज्वला’ योजना लॉन्च करने पहुंचे तो उन्होंने भाजपा सांसदों से कहा कि वे सरकार की उपलब्धियों को जन-जन तक पहुंचाने के अभियान में जुट जायें।
हर प्रत्याशी की अपनी प्राथमिकता
यकीनन सबसे बड़ा मुद्दा प्रदेश में विकास कार्य ही बनेंगे। हालाँकि हाल ही में सेना द्वारा सर्जिकल स्ट्राइक से पाक समर्थित आतंकी ठिकानों को नष्ट करने का कुछ फायदा भाजपा को होते दिख रहा है लेकिन मायावती और चुनावी रणनीति के जानकार प्रशांत किशोर की जातीय गणित के सहारे कांग्रेस भी अपनी चुनावी नैया पार लगाने का फार्मूला अपनाने से नहीं चूक रही हैं। मायावती दलित और मुस्लिम वोटों के सहारे तो शीला दीक्षित ब्राह्मण वोटों पर ख़ास तौर पर निगाह लगाये हुए हैं। कांग्रेस की पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और विधायक हालाँकि रीता बहुगुणा जोशी के भाजपा में शामिल होने का नुकसान तो कांग्रेस को उठाना ही पड़ेगा। मायावती तो बार-बार उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था का मुद्दा उठाकर लोगों को अहसास कराने की कोशिश कर रही हैं कि उनके शासनकाल में अपराध कम होते थे, वहीँ कांग्रेस ने राहुल की किसान यात्राओं के जरिये गाँव-गाँव तक में किसानों और वोटरों में अपनी पैठ बनाने की कोशिश की है।
वास्तव में इस बार के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव एक बड़े युद्ध के रूप में तब्दील हो चुके हैं। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि अब चुनाव भी तकनीक, आधुनिक विश्लेषण और सोशल मीडिया के प्रयोग के आधार पर लड़े जाते हैं। इसमें बसपा की तुलना में भाजपा, सपा और कांग्रेस की अच्छी पकड़ दिखती है। यूपी की सत्ता पाने की चाह रखने वाली पार्टियों की कोशिशों पर नजर डालें तो साम-दाम-दंड-भेद सब कुछ आजमाया जा रहा है। पार्टियों की तैयारियां खुद-ब-खुद ये हकीकत बयान करती हैं।
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समाजवादी पार्टी – अखिलेश यादव के विकास कार्यों के बल पर फिर सत्ता का मजबूत दावा

2012 में हुए विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को जो सफलता मिली उसमें अखिलेश यादव की साफ़-सुथरी और छवि और सपा के पुराने जातीय समीकरण निर्णायक साबित हुए थे। पूर्ण बहुमत से सपा की सरकार बनी और युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादवने बेहतरीन ढंग से यूपी की सत्ता चलाने की शुरुआत की। अखिलेश यादव ने विकास कार्यों पर जोर दिया और वो बात-बात में दावा करते हैं कि उनकी पार्टी ने जितने विकास कार्य कराये हैं, उतने कभी किसी पार्टी ने नहीं कराये।प्रदेश के नीतिकार और अर्थशास्त्री यह कहने से नहीं चूकते कि नारायण दत्त तिवारी के बाद प्रदेश को अखिलेश के रूप में पहला ऐसा मुख्यमंत्री मिला है, जो विकास के बारे में गंभीरता से सोच रहा है।हाल में हुए तमाम सर्वे में भी अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री के रूप में लोगों ने सबसे ज्यादा पसंद किया है। आगे भी लोग उन्हें ही मुख्यमंत्री पद का सबसे परफेक्ट उम्मीदवार मानते हैं।
इसलिए अखिलेश हैं पहली पसंद
बात चाहे बिजली के क्षेत्र में सुधार की हो या मेट्रो ट्रेन की, स्पोर्ट्स स्टेडियम, लखनऊ आगरा एक्सप्रेस वे, बलिया लखनऊ एक्सप्रेस वे, समाजवादी लैपटॉप, मोबाइल, कन्या विद्या धन, समाजवादी पेंशन, एम्बुलेंस जैसी ढेरों विकास योजनाएं प्रदेशवासियों के हित में हैं। ये सभी अखिलेश यादव के चुनावी एजेंडे में शामिल हैं। मगर इन सबके बावजूद इस बार के चुनाव में अखिलेश यादव के सामने ढेरों चुनौतियाँ हैं। मुलायम सिंह यादव के परिवार में पिछले कुछ महीनों से लगातार जो घटनाएं घटी हैं, वो किसी से छिपी नहीं हैं। हर स्तर पर परिवार में एकता के बयान जरूर दिए जा रहे हैं लेकिन जो कुछ दिख रहा है उसे विरोधी दलों के साथ ही आम वोटरों तक के लिए समझना मुश्किल नहीं है। कानून-व्यवस्था का मुद्दा अखिलेश सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। सभी विरोधी दल इस मुद्दे पर सरकार को घेरने का प्रयास कर रहे हैं तो बसपा प्रमुख मायावती तो इस मुद्दे पर एकदम हमलावर हैं।
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अखिलेश की साफ़-सुथरी छवि बड़ा सहारा
अखिलेश यादव और मुख्तार अंसारी प्रकरण से ये साफ़ जाहिर है कि मुख्यमंत्री अपनी छवि को मजबूत करने का प्रयास कर रहे हैं और अपनी छवि को एक ऐसे युवा नेता के रूप में विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं जो स्वच्छ राजनीति का पक्षधर है और राज्य को धर्म और जाति के बंधनों से मुक्त कर केवल विकास की बात करना चाहता है। अखिलेश यादव का मुख्य फोकस पहली बार वोट डालने वाले और युवा वर्ग हैं, जोकि मतदाताओं का लगभग 30प्रतिशत है। उनके पिता और समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव राज्य के उन अनुभवी नेताओं में से एक हैं जिनको प्रत्येक सीट के जातीय समीकरण की सटीक जानकारी है और संगठन पर भी वे मजबूत पकड़ रखते हैं। आगामी विधानसभा चुनाव को देखते हुए बीते दिनों सपा दो चरणों में मुलायम संदेश यात्रा पर अपनी चुनावी कसरत कर चुकी है। वहीं आगामी दिनों में भी तीसरे चरण की मुलायम संदेश यात्रा वाराणसी से निकालने जा रही है।
चुनौतियाँ भी कम नहीं
मुजफ्फर नगर दंगे से लेकर, मथुरा का जवाहरबाग काण्ड लोगों के जेहन से मिटाने की चुनौती भी अखिलेश यादव को झेलनी होगी।उनके लिए एक बड़ी चुनौती पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जमीन मजबूत करने की है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का जाट सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण जहां भाजपा की ओर खिसका है, वहीं सपा के भाजपा के प्रति नरम पड़ने के कारण अल्पसंख्यक वोट भी उससे छिटक रहा है. अल्पसंख्यक कहां जायेगा, यह कहना मुश्किल है, लेकिन सपा को छोड़ने के बाद उसकी प्राथमिकता में बसपा सबसे ऊपर और फिर कांग्रेसआयेगी।
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बसपा : मायावती का सोशल इंजीनियरिंग फार्मूला हिट कराने की जद्दोजहद

बसपा यानि बहुजन समाज पार्टी से ही सपा ने 2012 चुनाव में सत्ता जीती थी। इसलिए बसपा प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती इस बार हर हाल में यूपी की बादशाहत चाहती हैं। दो बड़े नेताओं स्वामी प्रसाद मौर्या और आरके चौधरी जैसे नेताओं के बसपा छोड़ने से पार्टी को झटका जरूर लगा है।स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी ने जोरदार झटका देते हुए पार्टी से नाता तोड़ लिया है। मायावती पर इन्होंने पैसे लेकर टिकट देने का आरोप लगाया। इन नेताओं के विद्रोही होने की वजह से बसपा का आंतरिक संकट गहराया है। पार्टी नेता मानते हैं कि इनके जाने से बसपा के राजनीतिक माहौल पर असर पड़ा है। खुद मायावती डैमेज कंट्रोल करने के लिए आगे आयीं और इसे विपक्षी दलों का षड्यंत्र बताया।हालांकि, बसपा में पहली बार ऐसा संकट नहीं आया है, लेकिन इतिहास बताता है कि हर टूट के बाद बसपा कहीं ज्यादा ताकतवर होकर उभरी है। स्वामी प्रसाद मौर्य यह दावा कर रहे हैं कि वह बसपा को उखाड़ फेकेंगेलेकिन, चार बार पहले मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती न तो पार्टी के बिखराव से चिंतित हैं, न दलित वोटों को लेकर।
सत्ता विरोधी लहर को भुनाने की कोशिश
मायावती की बसपा राज्य में सपा कि सत्ता विरोधी लहर को अपने पक्ष में बनाने कि कोशिश में है और कुछ सर्वेक्षणों ने उसे लाभ की स्थिति में दिखाया भी था परन्तु मायावती के समीकरण बीजेपी की आक्रामक रणनीति के कारण टूट रहे हैं। लोकसभा चुनाव इसका प्रमाण है। आंकड़ो कि मानें तो लोकसभा में ब्राह्मणों के 72प्रतिशत वोट भाजपा के खाते में गए थे और सिर्फ पांच प्रतिशत बसपा को मिले थे। मायावती चाहे लाख दावे कर लें कि स्वामी प्रसाद मौर्य और आरके चौधरी के पार्टी छोड़ने से को फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन सच्चाई यही है कि इससे बड़ी मात्रा में मौर्य और पासी वोट प्रभावित होंगे।
दलित-ब्राह्मण वोट पर फोकस
मायावती को लोकसभा चुनावों की हार का भी कोई गम नहीं। उनकी चिंता दलित-ब्राह्मण सोशल इंजीनियरिंग को लेकर है, जिसने 2007 में उन्हें बहुमत दिलाया था।अगर उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ा वर्ग आख़िरी पंक्ति के वोटर माने जाते हैं तो ब्राह्मण पहली पंक्ति के।उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की आबादी कुल आबादी की 10 फ़ीसदी है। 2007 के चुनाव में मायावती ने कुछ ब्राह्मण मतों को अपनी ओर करने में कामयाबी हासिल की थी।2007 में पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा की ओर बढ़ी।वो इसे लेकर इतनी गंभीर थी कि उन्होंने नगालैंड के कोहिमा में भी एक रैली कर डाली। 2009 के आम चुनाव में ब्राह्मणों ने मायावती का साथ नहीं दिया और कांग्रेस को अपना समर्थन दे दिया।ऐसे तो किसी पार्टी के जीतने और हारने की कई वजहें होती हैं, लेकिन 2009 में बसपा की हार में इसकी एक भूमिका ज़रूर थी।
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मायावती पार्टी का एक मात्र चेहरा
मायावती जानती हैं कि जब तक दलितों के साथ कोई और जाति बसपा से न जुड़े, वह विजय नहीं पा सकती। फिलहाल न तो ब्राह्मणजुड़ रहे हैं, न मुसलमान और न पिछड़े। डॉ बाबा साहब अम्बेडकर के नाम पर सियासत करनेवाली मायावती को उनके विरोधी दौलत की देवी बता कर तंज कसते हैं, लेकिन इस सच ये है कि मायावती ने  अनेक दलितों और वंचितों को दोबारा पहचान दिलायी। दलित उत्थान में योगदान करनेवाले कई सामाजिक क्षत्रपों की मूर्तियां इतिहास के पन्नों से निकल कर 21वीं सदी में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही हैं, तो यूपी में इसकी वजह मायावती ही हैं। 2007 के पहले मायावती दलितों को यह कहा करती थीं कि वह दलितों व पिछड़ों का विकास इसलिए नहीं कर पायीं, क्योंकि उन्हें बीजेपी के सहयोग से सरकार चलानी पड़ी और यह पार्टी इन वर्गों की दुश्मन है। बहुमत मिलने पर वह इस वर्ग का कायाकल्प कर देंगी। वर्ष 2007 में बसपा की सरकार आयी, तो उसके समर्थकों ने देखा कि सत्ता के दलाल कमजोर होने के बजाय कैसे और मजबूत हुए। सरकारी भर्तियों में धन का खेल हुआ। बसपा 2012 में लोगों को नहीं बता सकी थी कि दलितों और पिछड़ों के उत्थान के लिए उसने कौन से काम किये।
कड़ा है मुकाबला
मुख्यमंत्री बनने के लिए मायावती को भाजपा और सपा का मुकाबला करना है। मायावती ने संभावित उम्मीदवारों को विधानसभा प्रभारी बना कर बूथ स्तर तक पार्टी कार्यकर्ताओं को तैनात कर दिया है. लोगों को ये सपा और भाजपा सरकार की जनविरोधी नीतियों और बढ़ती महंगाई के बारे में बताते हुए मायावती को फिर से सत्ता में लाने की अपील कर रहे हैं। इस बार वे मूर्तियों और स्मारकों से दूर रहते हुए विकास और कानून व्यवस्था को तरजीह देने की बातें कह रही हैं।2007 में उन्हें सत्ता में लाने में मुसलमानों व कुछ हद तक ब्राह्मणों का योगदान माना जाता है, जिसे वह दोहराना चाहती हैं। वे जानती हैं कि बीते लोकसभा चुनावों में मुसलिम और ब्राह्मण वोटबैंक के पार्टी से दूर होने के चलते ही बसपा को एक भी सीट हासिल नहीं हुई। अब वह सर्वसमाज के नारे को हवा दे रही हैं। सपा शासनकाल में दलितों के साथ भेदभाव और प्रमोशन में आरक्षण को समाप्त करना बसपा के लिए बड़ा मुद्दा होगा।

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